सन्त दयानन्द हमारी धर्म ध्वजा फहराता था
तब जाकर बलिदानी भारत विश्वगुरु कहलाता था
विश्वगुरु के बँटवारे की त्रास बड़ी दुःख दाई है
जहर घोलने से नफरत की आग सुलगती आई है ।
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शुभ्र ज्योत्सना माँ की चुनरी सदा सुलगती आई है
सिन्धु देश की पावन धरती लगती आज परायी है
शस्य श्यामला आँचल को पर कोई बाँट नही सकता
मन बंटता है बेटों का कोई माँ को बाँट नही सकता ।
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वो बँटवारे की तस्वीरे सच में बहुत घिनोनी थी
पर भारत की किस्मत में वो अनहोनी भी होनी थी
याद करो रेलों में केसे रक्तिम लाशें आई थी
माँ -बहनों को लूट-लूट कर केसे आग लगाई थी
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आम आदमी मरता क्यों है मजहब के हुडदंगों में
इसका उत्तर छुपा हुआ है राजनीति के रंगों में
आस्तीन के सापों वाला जहर देश में फेल रहा
दुश्मन जयचंदों से मिलकर खुनी होली खेल रहा
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मुट्ठी अपनी भीच-भीच कर अब तक हमने सहन किया
अर्जुन होकर व्रह्न्न्ला का जामा हमने पहन लिया
चीखे सुन -सुन कर भी खुद को क्रुद्ध नही कर पाये हम
आर -पार की बातें कर ली युद्ध नही कर पाये हम
घायल मात्रभूमि के गहरे घाव दिखाने निकला हूँ
मै भारत का सोया स्वाभिमान जगाने निकला हूँ ।
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अँगारों के पथ पर भी हम कभी मौत से डरे नही
सौ-सौ घाव सहे सीने पर मरकर भी हम मरे नही
बारूदी चिंगारी क्या है दावानल से जले नही
दीवारों में चिने गये पर धर्मयुद्ध से टले नही
होड़ मचेगी फिर भारत के बेटों में बलिदान की
फिर शोणित से लिख देंगे हम गाथा हिन्दुस्तान की
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उठो हिन्द के वीर वतन की किलकारी में जोश भरो
स्वाभिमान की ध्वजा उठाकर पाचजन्य का घोस करो
तुम चाहो तो कतरा-कतरा रत्नाकर हो सकता है
तुम चाहो तो कंकर-कंकर शिव शंकर हो सकता है
तुम चाहो तो राम-राज्य का दोर शुरू हो सकता है
तुम चाहो तो भारत फिर से विश्वगुरु हो सकता है
सिंह शावको के शोणित में आग लगाने निकला हूँ
मै भारत का सोया स्वाभिमान जगाने निकला हूँ ।
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संग्रह से। ….
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