आँसू हैं अनमोल,
इन्हें बेकार गँवाना ठीक नही!
हैं इनका कुछ मोल,
इन्हें बे-वक्त बहाना ठीक नही!
छलक जाते हैं अब आँसू, गजल को गुनगुनाने में।
नहीं है चैन और आराम, इस जालिम जमाने में।।
नदी-तालाब खुद प्यासे, चमन में घुट रही साँसें,
प्रभू के नाम पर योगी, लगे खाने-कमाने में।
ईमान ढूँढने निकला हूँ, मैं मक्कारों की झोली में।
बलवान ढूँढने निंकला हूँ, मैं मुर्दारों की टोली में।
ताल ठोंकता काल घूमता, बस्ती और चैराहों पर,
कुछ प्राण ढूँढने निकला हूँ, मैं गद्दारों की गोली में।
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक जी
बहुत सुन्दर प्रस्तुति!
ReplyDeleteधन्यवाद!
मेरा नाम पूरा लिख दीजिए न!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'